भगवान शनि के लंगड़े होने की कथा

मुख्य जानकारी : पिप्पलाद , महर्षि दधीचि जी के पुत्र थे। पिप्पलाद' का शाब्दिक अर्थ होता है- 'पीपल के पेड़ के पत्ते खाकर जीवित रहने वाला।  संस्कृत वाङ्मय कोश के प्रणेता डॉक्टर श्रीधर भास्कर वर्णेकर के अनुसार अनुसार - पिप्पलाद उच्च कोटि के एक ऋषि थे। इनकी माता का नाम 'गभस्तिनी' था। पिप्पलाद के पिता दधीचि ऋषि ने जिस स्थान पर देह त्याग किया था, वहाँ पर कामधेनु ने अपनी दुग्ध धारा छोड़ी थी। इस वजह से उस स्थान को ‘दुग्धेश्वर’ कहा जाने लगा। पिप्पलाद उसी स्थान पर तपस्या किया करते थे। इसलिए उसे 'पिप्पलाद तीर्थ' भी कहते हैं। पिप्पलाद की माता के तीन नाम प्राप्त होते हैं 'गभस्तिनी', 'सुवर्चा' और 'सुभद्रा'। दधीचि के देहावसान के समय गभस्तिनी गर्भवती थी तथा अन्यत्र रहती थी। पति के निधन का समाचार विदित होते ही। उन्होंने अपना पेट चीरकर गर्भ को बाहर निकाला तथा उसे पीपल वृक्ष के नीचे रखा। इसके पश्चात् वे सती हो गईं। गभस्तिनी के इस गर्भ का वृक्षों ने संरक्षण किया। आगे चलकर इस गर्भ से जो शिशु बाहर निकला वही पिप्पलाद कहलाया। और जब इस बात का पता चला कि मातृपितृवियोग के लिए शनि कारणीभूत है। 


कहा जाता है कि पिप्पलाद मुनि की बाल्यावस्था में उनके पिता का देहावसान हो गया था। यमुना के तट पर तपस्वी जीवन व्यतीत करने वाले उनके पिता को शनि ने अत्यधिक कष्ट दिया था। विपन्नता और ब्याधि के निरंतर आक्रमण से पिप्पलाद मुनि के पिता के प्राण चले गए थे। उनकी माता अपने पति की मृत्यु का एकमात्र कारण शनि को ही मानती थी। जब पिप्पलाद बड़े हुए तो उन्होंने अपने मां से समस्त बातें जानीं। शनि के प्रति उनका क्रोध प्रचंड हो गया। उन्होंने शनि को ढूंढना प्रारंभ किया। अचानक एक दिन पीपल के वृक्ष पर शनि देव के दर्शन पीपलाद को हुए। पिप्पलाद शनि पर ब्रह्मदण्ड का संधान किये। शनिवार भागने में असमर्थ थे तो भी भागने लगे। ब्रह्मदंड ने तीनों लोगों में उन्हें दौड़ाया। अंततः ब्रह्मदण्ड ने शनि को लंगड़ा कर दिया। विकलांग शनि भगवान शिव से करुण प्रार्थना करने लगे।

भगवान शिव ने प्रकट होकर पिप्पलाद मुनि को बोध कराया कि शनि तो सिर्फ सृष्टि के नियमों का पालन करते हैं और वे मेरे सहायक हैं। तुम्हारे पिता की मृत्यु का कारण शनि नहीं हैं। वस्तु स्थिति जानकर पिप्पलाद ने शनि को क्षमा कर दिया। इसी प्रकार शनि की अधोदृष्टि के पीछे भी एक कथा है- शनि की अधोदृष्टि और क्रूरता का रहस्य उनकी पत्नी द्वारा दिए गए शाप में है। एक बार ऋतुस्राव से निवृत्त होकर शनि की पत्नी पुत्र अभिलाषा से उनकी सेवा में उपस्थित हुई। शनि समाधि में लीन थे। पत्नी का ऋतुकाल व्यर्थ चला गया। आहत होकर पत्नी ने शाप दिया कि जिस पर उनकी दृष्टि पड़ जाएगी, वह नष्ट हो जाएगा।

शनि की दृष्टि के कारण ही पार्वती पुत्र भगवान गणेश का शिरच्छेद न हुआ, भगवान राम को वनवास हुआ, लंकापति रावण का संहार हुआ और पांडवों को वनवास हुआ। शनि के कोप के कारण विक्रमादित्य राजा को कई कष्टों का सामना करना पड़ा तथा त्रेता युग में राजा हरिश्चंद्र को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी। राजा नल और उनकी रानी दमयंती को जीवन में कई प्रकार के कष्टों का सामना शनि की कुदृष्टि के कारण हुआ। ज्येष्ठ अमावस्या को शनि का जन्म होने के कारण इस दिन शनि जयंती मनाई जाती है। इस दिन शनि के निमित्त जो भी पूजा पाठ किए जाते हैं उससे शनि देवता प्रसन्न होते हैं। उनके दुःख और कष्टों में कमी करते हुए उन्हें श्रेष्ठ जीवन यापन की प्रेरणा प्रदान करते हैं। इस वर्ष 30 मई को शनि जयंती है।

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